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इसलाम में सही इबादत की शर्तें क्या हैं ?
 

 

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान  केवल अल्लाह के लिए योग्य है।

धर्मशास्त्री शैख मुहम्मद बिन सालेह बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह फरमाते हैं :

सर्वप्रथमः इबादत अपने सबब (कारण) के अंदर शरीअत के अनुकूल हो। अतः यदि कोई मनुष्य अल्लाह की उपासना किसी ऐसी इबादत के द्वारा करता है जो किसी ऐसे कारण पर आधारित है जो शरीअत से प्रमाणित नहीं है तो वह इबादत अस्वीकृत है, उस पर अल्लाह एवं उसके रसूल का आदेश नहीं है, इसका उदाहरण अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस पर जश्न मनाना है, इसी प्रकार जो लोग रजब की 27वीं रात को जश्न मनाते हैं यह दावा करते हुए कि उस रात नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मेराज कराया गया, शरीअत के अनुकूल नहीं है और अस्वीकृत है ; क्येंकि

1- ऐतिहासिक रुप से यह बात सिद्ध नहीं है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को 27वीं रात को मेराज कराया गया था। हदीस की किताबों हमारे सामने हैं जिनमें एक भी अक्षर ऐसा नहीं मिलता जो इस बात पर दलालत करता हो कि आप को रजब की 27वीं रात को मेराज कराया गया था, और यह बात ज्ञात है कि यह मामला खबर (सूचना) के अध्याय से संबंधित है जो शुद्ध सनदों (सूत्रों) से ही सिद्ध हो सकता है।


2- और यदि मान लिया जाये कि वह साबित है, तो क्या हमें यह अधिकार प्राप्त है कि हम उस दिन में कोई इबादत ईजाद करें या उसको ईद (त्योहार और पर्व) बना लें? कदापि नहीं। यही कारण है कि जब अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना तश्रीफ लाए और अंसार को देखा कि उनके यहाँ दो दिन ऐसे हैं जिनमें वे खेल-कूद करते हैं तो आप ने फरमायाः "अल्लाह ने तुम्हें इन दो दिनों से बेहतर दिन प्रदान किये हैं।" फिर आपने उनसे ईदुल-फित्र एवं ईदुल-अज़्हा का उल्लेख किया। यह इस बात पर तर्क है कि अल्लाह के नबी सल्ललाहु अलैहे व सल्लम इस्लामी ईदों (त्योहारों) के सिवाय इस्लाम के अंदर ईजाद की जाने वाली किसी भी ईद को नापसंद करते हैं और वे तीन हैं- दो ईदें वार्षिक हैं और वे ईदुल-फित्र एवं ईदुल-अज़्हा हैं, और एक साप्ताहिक ईद है और वह जुमा (जुमुआ का दिन) है।
अगर हम मान लें कि रजब की 27वीं रात को अल्लाह के नबी सल्लललाहु अलैहि व सल्लम को मेराज कराया गया था -हालांकि ऐसा असंभव है- तब भी हमारे लिए  अल्लाह के पैगंबर की अनुमति के बिना उसमें किसी चीज़ को ईजाद करना संभव नहीं है।


जैसाकि मैं तुम्हें बता चुका हूँ कि बिद्अत का मामला बहुत गंभीर है और हृदय पर उसका प्रभाव बहुत बुरा है, यहाँ तक कि इनसान यद्यपि उस समय अपने दिल में नरमी और विनम्रता महसूस करने लगता है परंतु उसके बाद मामला निश्चित रूप से उसके बिल्कुल उल्टा हो जाता है। क्योंकि गलत चीज़ पर हृदय का हर्ष (प्रसन्नता)  सदैव बाक़ी नहीं रहता है, बल्कि उसके बाद दर्द, पश्चाताप, अफसोस और खेद की बारी आती है। और हर प्रकार की बिदअत में गंभीरता पाई जाती है ; क्येंकि यह ईश्दूतत्व और संदेष्टता (पैगंबरी) की आलोचना पर आधारित है, इसलिए कि बिदअत का मतलब यह हुआ कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने शरीअत को मुकम्मल तौर से नहीं पहुँचाया है, जबकि अल्लाह तआला कुरआन के अंदर फरमा रहा है किः

﴿ الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الإِسْلاَمَ دِيناً ﴾

‘‘आज मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को मुकम्मल कर दिया और तुम पर अपनी नेमतें सम्पूर्ण कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम धर्म को पसंद कर लिया।" (सूरतुल माईदा: 3)   

आश्चर्य की बात यह है कि इन बिदअतों में लिप्त कुछ लोगों को आप देखें गे कि वे बिदअतों को करने के अति अधिक लालायित होते हैं, हालांकि जो चीज़ सबसे अधिक लाभदायक, सबसे उचित और सबसे अधिक योग्य है उसमें आलस्य होते हैं।

इसीलिए हम कहते हैं कि 27वीं रात को इस आधार पर जश्न मनाना कि उसी रात को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मेराज कराया गया था, यह बिदअत है ; क्येंकि इसका आधार एक ऐसे सबब (कारण) पर है जो शरीअत से साबित नहीं है।

दूसरी शर्तः यह है कि इबादत वर्ग एवं जाति के अंदर शरीअत के अनुकूल हो, जैसे कि कोई मनुष्य घोड़े की कुर्बानी करे, यदि कोई मनुष्य घोड़े की कुर्बानी करता है तो वह उसके कारण वर्ग एवं जाति के अंदर शरीअत का विरोध करने वाला है। (क्योंकि चौपायों की ही क़ुर्बानी करना जाइज़ है और वे जानवरः ऊँट, गाय तथा बकरी हैं).

तीसरी शर्तः यह है कि इबादत मात्रा में शरीअत के अनुकूल हो। अगर कोई मनुष्य कहे कि वह जुहर की नमाज छह रकअत पढ़ता है तो क्या उसकी यह इबादत शरीअत के अनुकूल है? कदापि नहीं, क्योंकि उसकी यह नमाज मात्रा में शरीअत के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार अगर कोई मनुष्य फर्ज़ नमाज के बाद "सुब्हानल्लाह, अलहम्दुलिल्लाह, अल्लाहु अक्बर" 35 बार पढता है तो क्या यह सही है ?
इसका उत्तर यह है किः हम कहेंगे कि अगर इस संख्या के द्वारा आपका मक़सद अल्लाह की इबादत करना है तो आप ने गलत किया है। और यदि आपने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के द्वारा निर्धारित संख्या पर वृद्धि का इरादा किया है, किंतु आप इस बात पर अक़ीदा (विश्वास) रखते है कि धर्मसंगत केवल तैंतीस की संख्या है तो इसमें कोइ बात नहीं है। क्योंकि आपने उसे उसके द्वारा उपासना करने से अलग कर दिया है।

चैथी शर्तः यह है कि इबादत अपनी कैफियत (ढंग और तरीक़े) में शरीअत के अनुकूल हो। अगर किसी मनुष्य ने इबादत को उसके वर्ग, मात्रा, तथा उस के सबब (कारण) के अनुसार अदा किया, मगर उसकी कैफियत में शरीअत का विरोध किया है, तो यह (उसकी नमाज) सही नहीं होगी। इसका उदाहरण यह है किः किसी मनुष्य ने छोटा हदस किया (अर्थात उसका वुज़ू टूट गट), और उसने वुजू किया, परंतु उसने      सबसे पहले अपने पैरों को धोया, फिर अपने सिर का मसह किया, फिर अपने दोनों हाथों को धोया, फिर अपने चेहरे को धोया, तो क्या एसे मनुष्य का वुजू सही होगा? कदापि नहीं, क्येंकि उस ने वुजू के तरीके (कैफियत और ढंग) में शरीअत की मुखालफत की है।

पाँचवी शर्तः यह है कि इबादत को समय एवं वक़्त में शरीअत के अनुकूल होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर कोई मनुष्य रमजान का रोजा, शबान या शव्वाल में रखे, या जुहर की नमाज ज़वाल (सूर्य ढलने) से पहले या हर चीज़ का साया उसके बराबर हो जाने के बाद पढ़े, क्योंकि यदि उसने सूरज ढलने से पहले नमाज़ पढ़ी है तो उसने समय से पहले नमाज़ पढ़ ली, और यदि हर चीज़ का साया उसके बराबर होने के बाद नमाज़ पढ़ी है तो उसने समय निकलने के बाद नमाज़ पढ़ी, अतः उसकी नमाज नहीं होगी।


इसीलि हम कहते हैं, अगर कोई मनुष्य अकारण किसी नमाज़ को जान बूझ कर छोड़ दे यहाँ तक कि उसका समय निकल जाये, तो उसकी नमाज़ उससे स्वीकार नहीं की जायेगी चाहे वह उस नमाज़ को हजार बार पढ़ता रहे। यहाँ पर हम इस अध्याय में एक महत्वपूर्ण नियम वर्णन करते हैं और वह यह कि हर वह इबादत जिसका कोई समय निर्धारित है यदि मनुष्य उसे बिना किसी कारण उसके समय से निकाल देता है, तो वह इबादत स्वीकार नहीं होगी बल्कि वह रद्द कर दी जायेगी।
इसकी दलील आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की हदीस है किः "अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "जिस मनुष्य ने भी कोई ऐसा काम किया जिस पर हमारा आदेश नहीं है, तो उसे रद्द कर दिया जायेगा।"

छठी शर्तः यह है कि इबादत उसके स्थान में शरीअत के के अनुकूल हो। अतः अगर कोई मनुष्य अरफा के दिन, मुज़दलिफा में ठहरे, तो उसका वकूफ (ठहरना) सही नहीं होगा। क्येंकि यह इबादत उसके स्थान में शरीअत के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार उदाहरण के तौर पर यदि कोई मनुष्य अपने घर में एतिकाफ करे, तो उसका एतिकाफ सही नहीं होगा ; क्योंकि एतिकाफ की जगह मस्जिद है। इसी कारण महिला के लिए अपने घर में एतिकाफ करना सही नहीं हैं ; क्योंकि वह एतिकाफ करने की जगह नहीं है। और जब अल्लाह के नबी सल्ललाहु अलैहे व सल्लम ने अपनी कुछ बीवियों को देखा कि उन्हों ने मस्जिद में अपने लिए खेमा लगा लिया है, तो आप ने खेमों को उखाड़ने और एतिकाफ को स्थगित करने का आदेश दिया। और आपने उन्हें अपने घरों में एतिकाफ करने का सुझाव नही दिया। यह इस बात की दलील है कि औरत के लिए अपने घर के अंदर एतिकाफ में बैढना जाइज़ नहीं है क्योंकि यह स्थान में शरीअत के विरुध है।

यह छह तत्व हैं जिनके इबादत के अंदर पाये जाये बिना अनुसरण परिपूर्ण नहीं हो सकताः  
1- इबादत का सबब (कारण)

2- इबादत की जाति (वर्ग, प्रकार)

3- इबादत की मात्रा

4- इबादत की कैफियत (ढंग एवं तरीक़ा)

5- इबादत का समय

6- इबादत का स्थान

अंत हुआ।

और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।